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अ॒ग्निर्हि जानि॑ पू॒र्व्यश्छन्दो॒ न सूरो॑ अ॒र्चिषा॑ । ते भा॒नुभि॒र्वि त॑स्थिरे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir hi jāni pūrvyaś chando na sūro arciṣā | te bhānubhir vi tasthire ||

पद पाठ

अ॒ग्निः । हि । जानि॑ । पू॒र्व्यः । छन्दः॑ । न । सूरः॑ । अ॒र्चिषा॑ । ते॒ । भा॒नुऽभिः॑ । वि । त॒स्थि॒रे॒ ॥ ८.७.३६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:7» मन्त्र:36 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:24» मन्त्र:6 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:36


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शिव शंकर शर्मा

मरुत्स्वभाव दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (छन्दः) प्रार्थनीय (सूरः+न) सूर्य के समान (अग्निः+हि) अग्नि (पूर्व्यः) सर्व देवों में प्रथम (अर्चिषा) ज्वाला के साथ (जनि) उत्पन्न होता है अर्थात् सूर्य्य के साथ-२ अग्नि है तत्पश्चात् (ते) वे मरुद्गण (भानुभिः) आग्नेय तेजों से प्रेरित होने पर (वितस्थिरे) विविध प्रकार स्थित होते हैं ॥३६॥
भावार्थभाषाः - यह निश्चित विषय है कि प्रथम आग्नेय शक्ति की अधिकता होती है, पश्चात् वायुशक्ति की, यही विषय इसमें कहा गया है ॥३६॥
टिप्पणी: यह अष्टम मण्डल का सातवाँ सूक्त और २४ चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

अब उक्त गुणसम्पन्न योद्धाओं से सम्पन्न सम्राट् का यश वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्चिषा, सूरः, न) जिस प्रकार किरणों के हेतु से सूर्य्य प्रथम स्तोतव्य माना जाता है इसी प्रकार (अग्निः, हि) अग्निसदृश सम्राट् ही (पूर्व्यः, छन्दः) प्रथम स्तोतव्य (जानि) होता है (ते) और वे योद्धालोग ही (भानुभिः) उसकी किरणों के समान (वितस्थिरे) उपस्थित होते हैं ॥३६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि उक्त प्रकार के योद्धा जिस सम्राट् के वशवर्ती होते हैं, उसका तेज सहस्रांशु सूर्य्य के समान दशों दिशाओं में फैलकर अन्यायरूप अन्धकार को निवृत्त करता हुआ सम्पूर्ण संसार का प्रकाशक होता है ॥३६॥ यह सातवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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शिव शंकर शर्मा

मरुत्स्वभावं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - छन्दः=छन्दनीयः प्रार्थनीयः। सूरो न=सूर्य्य इव। अग्निर्हि=अग्निरपि। पूर्व्यः=सर्वदेवेषु मुख्यः प्रथमो वा। अर्चिषा। जनि=अजनि=अजायत। तत्पश्चात्। ते मरुतः। भानुभिः=अग्निप्रभाभिः प्रेरिताः सन्तः। वितस्थिरे= विविधमवतिष्ठन्ते ॥३६॥
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आर्यमुनि

अथोक्तगुणसम्पन्नयोद्धृभिः सम्पन्नस्य सम्राजो यशो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्चिषा, सूरः, न) अर्चिषा हेतुना सूर्य्य इव (अग्निः, हि) अग्निसदृशः सम्राडेव (पूर्व्यः, छन्दः) प्रथमः स्तोतव्यः (जानि) जायते अस्य कानि अर्चींषि इत्याह (ते) ते योद्धार एव (भानुभिः) किरणैस्तुल्याः (वितस्थिरे) उपस्थिता भवन्ति ॥३६॥ इति सप्तमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥